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रामचरित मानस



दोहाः

बिपिन गवन केवट अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥

बालमीक प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट जिमि बसे भगवाना॥2॥



भावार्थ:-श्री राम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगाजी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, वाल्मीकिजी और प्रभु श्री रामजी का मिलन और जैसे भगवान्‌ चित्रकूट में बसे, वह सब कहा॥2॥





* सचिवागवन नगर नृप मरना। भरतागवन प्रेम बहु बरना॥


करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहाँ प्रभु सुख रासी॥3॥





भावार्थ:-फिर मंत्री सुमंत्रजी का नगर में लौटना, राजा दशरथजी का मरण, भरतजी का (ननिहाल से) अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अन्त्येष्टि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरतजी वहाँ गए जहाँ सुख की राशि प्रभु श्री रामचंद्रजी थे॥3॥





* पुनि रघुपति बहु बिधि समुझाए। लै पादुका अवधपुर आए॥

भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥4॥





भावार्थ:-फिर श्री रघुनाथजी ने उनको बहुत प्रकार से समझाया, जिससे वे खड़ाऊँ लेकर अयोध्यापुरी लौट आए, यह सब कथा कही। भरतजी की नन्दीग्राम में रहने की रीति, इंद्रपुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु श्री रामचंद्रजी और अत्रिजी का मिलाप वर्णन किया॥4॥





दोहा :


* कहि बिराध बध जेहि बिधि देह तजी सरभंग।

बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभ अगस्ति सतसंग॥65॥





भावार्थ:-जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंगजी ने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर, फिर सुतीक्ष्णजी का प्रेम वर्णन करके प्रभु और अगस्त्यजी का सत्संग वृत्तान्त कहा॥65॥





चौपाई :




* कहि दंडक बन पावनताई। गीध मइत्री पुनि तेहिं गाई॥

पुनि प्रभु पंचबटीं कृत बासा। भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा॥1॥





भावार्थ:-दंडकवन का पवित्र करना कहकर फिर भुशुण्डिजी ने गृध्रराज के साथ मित्रता का वर्णन किया। फिर जिस प्रकार प्रभु ने पंचवटी में निवास किया और सब मुनियों के भय का नाश किया,॥1॥





* पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा

खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना॥2॥





भावार्थ:-और फिर जैसे लक्ष्मणजी को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को कुरूप किया, वह सब वर्णन किया। फिर खर-दूषण वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार जाना, वह बखानकर कहा,॥2॥



* दसकंधर मारीच बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही॥

पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर बिरह कछु बरना॥3॥



भावार्थ:-तथा जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई, वह सब उन्होंने कही। फिर माया सीता का हरण और श्री रघुवीर के विरह का कुछ वर्णन किया॥3॥





* पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्हीं। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥

बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा। जेहि बिधि गए सरोबर तीरा॥4॥





भावार्थ:-फिर प्रभु ने गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया की, कबन्ध का वध करके शबरी को परमगति दी और फिर जिस प्रकार विरह वर्णन करते हुए श्री रघुवीरजी पंपासर के तीर पर गए, वह सब कहा॥4॥





दोहा :


* प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।

पुनि सुग्रीव मिताई बालि प्रान कर भंग॥66 क॥





भावार्थ:-प्रभु और नारदजी का संवाद और मारुति के मिलने का प्रसंग कहकर फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के प्राणनाश का वर्णन किया॥66 (क)॥





* कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरषन बास।
बरनन बर्षा सरद अरु राम रोष कपि त्रास॥66 ख॥




भावार्थ:-सुग्रीव का राजतिलक करके प्रभु ने प्रवर्षण पर्वत पर निवास किया, वह तथा वर्षा और शरद् का वर्णन, श्री रामजी का सुग्रीव पर रोष और सुग्रीव का भय आदि प्रसंग कहे॥66 (ख)॥





चौपाई :




* जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिदि धाए॥

बिबर प्रबेस कीन्ह जेहि भाँति। कपिन्ह बहोरि मिला संपाती॥1॥





भावार्थ:-जिस प्रकार वानरराज सुग्रीव ने वानरों को भेजा और वे सीताजी की खोज में जिस प्रकार सब दिशाओं में गए, जिस प्रकार उन्होंने बिल में प्रवेश किया और फिर जैसे वानरों को सम्पाती मिला, वह कथा कही॥1॥





* सुनि सब कथा समीरकुमारा। नाघत भयउ पयोधि अपारा॥

लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सीतहि धीरजु जिमि दीन्हा॥2॥





भावार्थ:-सम्पाती से सब कथा सुनकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी जिस तरह अपार समुद्र को लाँघ गए, फिर हनुमान्‌जी ने जैसे लंका में प्रवेश किया और फिर जैसे सीताजी को धीरज दिया, सो सब कहा॥2॥





* बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥

आए कपि सब जहँ रघुराई। बैदेही की कुसल सुनाई॥3॥





भावार्थ:-अशोक वन को उजाड़कर, रावण को समझाकर, लंकापुरी को जलाकर फिर जैसे उन्होंने समुद्र को लाँघा और जिस प्रकार सब वानर वहाँ आए जहाँ श्री रघुनाथजी थे और आकर श्री जानकीजी की कुशल सुनाई,॥3॥





* सेन समेति जथा रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥

मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥4॥





भावार्थ:-फिर जिस प्रकार सेना सहित श्री रघुवीर जाकर समुद्र के तट पर उतरे और जिस प्रकार विभीषणजी आकर उनसे मिले, वह सब और समुद्र के बाँधने की कथा उसने सुनाई॥4॥





दोहा :




* सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार। 

गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥67 क॥





भावार्थ:-पुल बाँधकर जिस प्रकार वानरों की सेना समुद्र के पार उतरी और जिस प्रकार वीर श्रेष्ठ बालिपुत्र अंगद दूत बनकर गए वह सब कहा॥67 (क)॥




* निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।

कुंभकरन घननाद कर बल पौरुष संघार॥67 ख॥





भावार्थ:-फिर राक्षसों और वानरों के युद्ध का अनेकों प्रकार से वर्णन किया। फिर कुंभकर्ण और मेघनाद के बल, पुरुषार्थ और संहार की कथा कही॥67 (ख)॥





चौपाई :




* निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥

रावन बध मंदोदरि सोका। राज बिभीषन देव असोका॥1॥





भावार्थ:-नाना प्रकार के राक्षस समूहों के मरण तथा श्री रघुनाथजी और रावण के अनेक प्रकार के युद्ध का वर्णन किया। रावण वध, मंदोदरी का शोक, विभीषण का राज्याभिषेक और देवताओं का शोकरहित होना कहकर,॥1॥





* सीता रघुपति मिलन बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥

पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध चले प्रभु कृपा निकेता॥2॥





भावार्थ:-फिर सीताजी और श्री रघुनाथजी का मिलाप कहा। जिस प्रकार देवताओं ने हाथ जोड़कर स्तुति की और फिर जैसे वानरों समेत पुष्पक विमान पर चढ़कर कृपाधाम प्रभु अवधपुरी को चले, वह कहा॥2॥





* जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥

कहेसि बहोरि राम अभिषेका। पुर बरनत नृपनीति अनेका॥3॥





भावार्थ:-जिस प्रकार श्री रामचंद्रजी अपने नगर (अयोध्या) में आए, वे सब उज्ज्वल चरित्र काकभुशुण्डिजी ने विस्तारपूर्वक वर्णन किए। फिर उन्होंने श्री रामजी का राज्याभिषेक कहा। (शिवजी कहते हैं-) अयोध्यापुरी का और अनेक प्रकार की राजनीति का वर्णन करते हुए-॥3॥





* कथा समस्त भुसुंड बखानी। जो मैं तुम्ह सन कही भवानी॥

सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥4॥





भावार्थ:-भुशुण्डिजी ने वह सब कथा कही जो हे भवानी! मैंने तुमसे कही। सारी रामकथा सुनकर गरुड़जी मन में बहुत उत्साहित (आनंदित) होकर वचन कहने लगे-॥4॥





सोरठा :




* गयउ मोर संदेह सुनेउँ सकल रघुपति चरित।

भयउ राम पद नेह तव प्रसाद बायस तिलक॥68 क॥





भावार्थ:-श्री रघुनाथजी के सब चरित्र मैंने सुने, जिससे मेरा संदेह जाता रहा। हे काकशिरोमणि! आपके अनुग्रह से श्री रामजी के चरणों में मेरा प्रेम हो गया॥68 (क)॥





*मोहि भयउ अति मोह प्रभु बंधन रन महुँ निरखि।

चिदानंद संदोह राम बिकल कारन कवन॥68 ख॥





भावार्थ:-युद्ध में प्रभु का नागपाश से बंधन देखकर मुझे अत्यंत मोह हो गया था कि श्री रामजी तो सच्चिदानंदघन हैं, वे किस कारण व्याकुल हैं॥68 (ख)॥





चौपाई :




* देखि चरित अति नर अनुसारी। भयउ हृदयँ मम संसय भारी॥

सोई भ्रम अब हित करि मैं माना। कीन्ह अनुग्रह कृपानिधाना॥1॥





भावार्थ:-बिलकुल ही लौकिक मनुष्यों का सा चरित्र देखकर मेरे हृदय में भारी संदेह हो गया। मैं अब उस भ्रम (संदेह) को अपने लिए हित करके समझता हूँ। कृपानिधान ने मुझ पर यह बड़ा अनुग्रह किया॥1॥





* जो अति आतप ब्याकुल होई। तरु छाया सुख जानइ सोई॥

जौं नहिं होत मोह अति मोही। मिलतेउँ तात कवन बिधि तोही॥2॥





भावार्थ:-जो धूप से अत्यंत व्याकुल होता है, वही वृक्ष की छाया का सुख जानता है। हे तात! यदि मुझे अत्यंत मोह न होता तो मैं आपसे किस प्रकार मिलता?॥2॥






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